
बचपन की कमी और प्यार की तलाश
रीमा हमेशा से ही प्यार के लिए प्यासे मन के साथ बड़ी हुई थी। बचपन में ही उसने अपने घर में रिश्तों की कड़वाहट देख ली थी। उसके पिता अक्सर चुप रहते और माँ ग़ुस्से में। घर का माहौल ऐसा था जहाँ प्यार भरे शब्द बहुत कम सुनाई देते थे। जब टीवी पर कोई फिल्म चलती और उसमें हीरो हीरोइन को प्यार से देखता, तो रीमा सोचती – काश कोई मुझे भी ऐसे देखे।
स्कूल में सहेलियाँ जब अपने “क्रश” के बारे में बातें करतीं तो रीमा बस सुनती रहती। उसकी अपनी डायरी में कुछ और ही लिखा होता छोटी-छोटी इच्छाएँ, जैसे किसी का हाथ पकड़ना, किसी के कंधे पर सिर रखकर रो लेना, या किसी की आँखों में खुद के लिए चाह देख लेना। वह दूसरों के अनुभवों को सुनकर मुस्कुराती, लेकिन भीतर से टूट जाती। उसके पास कहने को कुछ नहीं था।
कॉलेज आने पर उसे लगा कि अब सब बदल जाएगा। बड़े शहर में, खुले माहौल में, उसे भी कोई मिलेगा। हॉस्टल की खिड़की से बाहर झाँकते हुए वह कई बार सोचती इस भीड़ में कहीं तो कोई होगा जो सिर्फ़ मेरा इंतज़ार कर रहा होगा। लेकिन साल दर साल बीतते गए और वह इंतज़ार बस गहराता गया।
- निराशा और भीतर का खालीपन
कॉलेज में दोस्त जब अपने रिश्तों की बातें करते, तो रीमा बाहर से हँसती, लेकिन भीतर से चुप हो जाती। पूजा, उसकी सबसे करीबी सहेली, अपने बॉयफ्रेंड से घंटों फोन पर बातें करती। कभी डेट पर जाती तो रीमा को अकेला छोड़ जाती। एक बार पूजा ने मजाक में कहा था – “तू इतनी सीरियस क्यों रहती है? कभी किसी को हाँ बोल के देख।” रीमा ने हँसते हुए टाल दिया, लेकिन उसके दिल ने यह बात गहराई से महसूस की।
रात को हॉस्टल के कमरे में अकेली बैठकर वह मोबाइल पर डेटिंग ऐप्स स्क्रॉल करती। प्रोफ़ाइल बनाती, चैट करती। शुरुआत में लगता था जैसे वह सही जगह पर है, लेकिन जल्दी ही पता चल जाता कि ज्यादातर लड़के सिर्फ़ तस्वीर और बाहरी रूप देखते थे। कोई पूछता – फोटो भेजोगी? कोई कहता – “लोनली लगती हो, क्या कॉफी चलेगी?” वह चाहती थी कोई उसके दिल को पढ़े, उसकी आँखों की बेचैनी समझे। लेकिन ऐसा कोई नहीं मिला।
छोटी-सी बात में भी वह उम्मीद ढूँढ लेती। क्लास का आकाश उससे नोट्स लेने आया, तो उसे लगा शायद यह शुरुआत हो। उसने रात भर नोट्स सँवारे, ताकि आकाश प्रभावित हो। लेकिन जब उसने अगले दिन “थैंक्स” कहकर दोस्तों के साथ हँसते हुए चले जाने के अलावा कुछ नहीं किया, तो रीमा देर तक वहीं खड़ी रह गई।
धीरे-धीरे उसका खालीपन और गहराता गया। कभी पढ़ाई के बीच अचानक वह ख्यालों में खो जाती “क्या मैं सच में इतनी साधारण हूँ कि कोई मुझे प्यार नहीं करेगा?” वह सवाल उसके आत्मसम्मान को खा रहा था। उसकी आँखें अक्सर भीग जातीं, लेकिन वह मुस्कान का नकाब ओढ़ लेती।
- उम्मीद की हल्की किरण
एक दिन लाइब्रेरी में रीमा एक मोटी सी किताब खोलकर बैठी थी। शब्दों पर नज़र नहीं टिक रही थी। तभी सामने वाली टेबल पर करण आकर बैठा। उसने धीरे से पूछा – “क्या यह सीट खाली है?” रीमा ने सिर हिलाकर हाँ कहा।
करण ने किताबें खोलीं और थोड़ी देर बाद बोला – “तुम नोट्स बहुत अच्छे बनाती हो न? पिछली बार तुम्हारी कॉपी देखी थी।” रीमा हल्की मुस्कान रोक नहीं पाई। यह पहली बार था जब किसी ने उसकी मेहनत की तारीफ की थी
धीरे-धीरे उनकी बातचीत बढ़ी। करण जल्दीबाज़ नहीं था। वह बिना किसी छुपे इरादे के बातें करता। कभी कभी पूछता – “तुम्हें कौन-सी किताबें पसंद हैं?” या फिर “आजकल इतनी चुप क्यों हो?” रीमा को लगा जैसे पहली बार कोई उसकी चुप्पी को समझ रहा है।
उसके भीतर एक छोटी-सी उम्मीद जगने लगी। यह उम्मीद अभी प्यार का रूप नहीं थी, लेकिन उसने रीमा की रातों को कुछ हल्का ज़रूर कर दिया। वह डायरी में लिखने लगी शायद सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। शायद मुझे भी कोई समझ सकता है।
- खुद से प्यार करने की सीख
लेकिन रीमा ने इस बार खुद को संभाला। उसने सोचा,अगर करण मुझे समझता है, तो यह अच्छी बात है। लेकिन मैं अपनी पूरी दुनिया उसके हाथ में नहीं रख सकती। उसे अहसास हुआ कि अब तक वह प्यार के लिए इतनी बेताब रही कि खुद को ही खो बैठी थी।
उस रात उसने डायरी में लंबा लिखा
“मैं अधूरी नहीं हूँ। मुझे पूरा करने के लिए किसी और की ज़रूरत नहीं। हाँ, इंसान को इंसान की ज़रूरत होती है, लेकिन जब तक कोई नहीं आता, मुझे खुद से जीना सीखना होगा। प्यार जब आएगा, धीरे-धीरे आएगा और तब वह सच्चा होगा।”
अब वह हर दिन थोड़ी-थोड़ी कोशिश करती। अकेले कॉफी पीती, खुद से बातें करती, छोटी-छोटी चीज़ों में खुशी ढूँढती। करण से दोस्ती बनी रही, लेकिन इस बार उसने अपनी उम्मीदों को संतुलित रखा
प्यार की प्यास अब भी उसके भीतर थी, पर वह उसे तोड़ने वाली प्यास नहीं थी। अब यह प्यास उसे जीना सिखा रही थी। रीमा ने जाना कि सबसे पहला प्यार खुद से होना चाहिए। जब वह खुद को अपना पाएगी, तभी कोई और सचमुच उसे अपना पाएगा।