
वापसी और रहस्य का साया
आदित्य ने अपनी मोटरसाइकिल रोकी और आँखें बंद करके लंबी साँस ली। हवा में मिट्टी, गीली घास और दूर बहती नदी की ठंडी सुगंध थी। यह शिवगढ़ था – वह गाँव जिसे उसने दस साल पहले छोड़ा था ताकि महानगरों की चमकदार, मगर खोखली दुनिया में अपना भविष्य तलाश सके। अब, वह वापस आ गया था। शहर की सफल नौकरी ने उसे पैसा दिया था, पर मन की शांति नही
शिवगढ़ के प्रवेश द्वार पर बना पुराना बरगद का पेड़ अब भी अपनी विशाल भुजाएँ फैलाए खड़ा था, मगर गाँव के चेहरे पर एक उदासी की चादर फैली थी। कभी समृद्धि और हरियाली से भरा यह गाँव अब सूखा, गरीबी और आपसी मनमुटाव का शिकार था। नदी का किनारा जहाँ कभी बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थीं, अब वीरान था। आदित्य अपने पैतृक घर पहुँचा। उसकी बूढ़ी दादी, जो हमेशा की तरह तुलसी के पौधे के पास बैठी थीं, उसे देखकर रो पड़ीं।
आदित्य! तू आ गया मेरे लाल। मुझे पता था, तू आएगा, दादी ने उसे गले लगाते हुए कहा। अगले कुछ दिन आदित्य ने गाँव के हाल देखे। पानी का संकट गंभीर था। गाँव के मुखिया, राम सिंह का बेटा, सेठ जगन्नाथ नामक एक बाहरी व्यापारी के हाथों अपनी पुश्तैनी ज़मीन बेचने के लिए तैयार बैठा था। जगन्नाथ गाँव की बंजर ज़मीन सस्ते में खरीदकर उस पर एक बड़ा रिसॉर्ट बनाना चाहता था, यह कहकर कि इससे गाँव का विकास होगा, पर गाँव वाले जानते थे कि वह सिर्फ अपने मुनाफ़े के लिए आया है। एक शाम, आदित्य नदी के संगम की ओर गया, जहाँ दो छोटी नदियाँ शीतल और गंगाली मिलती थीं। संगम के पास ही सदियों पुराना सिद्धेश्वर महादेव का मंदिर था। मंदिर के खंडहर के पास, उसने एक आकृति देखी। वह एक बहुत बूढ़े साधु थे, जिनके बाल जटाओं में लिपटे थे और शरीर पर भस्म लगी थी। गाँव वाले उन्हें बाबा नीलकंठ कहते थे। वह शायद ही कभी किसी से बात करते थे। आदित्य ने उन्हें प्रणाम किया। बाबा ने अपनी आँखें खोलीं। उनकी गहरी, शांत आँखें ऐसी थीं जैसे उनमें सदियों का ज्ञान समाया हो।
“आदित्य… शहरों की चमक तुझे शिवगढ़ वापस खींच लाई,” बाबा ने धीमी, पर दृढ़ आवाज़ में कहा।
आदित्य चौंक गया। “बाबा, आप मुझे कैसे जानते हैं? “मैं तुझे नहीं, तेरे अंदर के खालीपन को जानता हूँ, बेटा। यह गाँव जिस संकट में है, वह केवल पानी या पैसे का नहीं है। यह संकट उस आत्मा का है जिसे इस गाँव ने सदियों पहले खो दिया था।”
आदित्य, जो तर्क और विज्ञान में विश्वास रखता था, मुस्कुराया। “बाबा, मुझे लगता है कि यह सब आर्थिक नीतियों और जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। यह गाँव सूख रहा है।
बाबा नीलकंठ ने एक गहरी, रहस्यमय मुस्कान दी। “यह गाँव तब तक नहीं सूखेगा जब तक इसका ‘अमृत-ग्रंथ’ सुरक्षित है। जिस दिन वह ज्ञान समाप्त हो जाएगा, उस दिन शिवगढ़ केवल मिट्टी का ढेर बन कर रह जाएगा।”अमृत-ग्रंथ? यह क्या है बाबा
“यह खजाना है, आदित्य। केवल सोना-चाँदी नहीं, बल्कि शाश्वत ज्ञान का खजाना। सदियों पहले, यहाँ के संतों ने प्रकृति के साथ सद्भाव में जीने का एक तरीका इस ग्रंथ में लिख कर छिपा दिया था। यह जहाँ छिपा है, वहाँ से एक आध्यात्मिक ऊर्जा निकलती है जो इस भूमि को उपजाऊ रखती है। यह खजाना ही शिवगढ़ की असली जीवन-रेखा है।”
बाबा ने अचानक अपनी उंगली मंदिर के पीछे की पहाड़ी की ओर उठाई, जहाँ एक गहरी, अंधेरी गुफा का प्रवेश द्वार दिखाई देता था। वह ज्ञान उसी योगिनी गुफा में छिपा है। और अब, समय आ गया है कि कोई योग्य व्यक्ति उस खजाने को फिर से खोजे। बाहरी लोग, जैसे सेठ जगन्नाथ, केवल सोने की चमक देखते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि उस ज्ञान को केवल शुद्ध हृदय ही प्राप्त कर सकता है।आदित्य को लगा कि यह किसी पुरानी कहानी का हिस्सा है, पर बाबा की आँखों में इतनी सच्चाई थी कि वह उन्हें टाल नहीं सका। उसने फैसला किया कि वह इस रहस्य को सुलझाएगा – अगर आध्यात्मिक नहीं, तो एक साहसिक खोज की तरह ही सही।
आध्यात्मिक कसौटी और पहला सुराग
अगले दिन, आदित्य ने बाबा नीलकंठ से संपर्क किया।
“मैं तैयार हूँ, बाबा। अगर वह ग्रंथ इस गाँव को बचा सकता है, तो मैं उसे खोजूँगा।”
बाबा नीलकंठ ने मुस्कुराकर सिर हिलाया। “यह कोई बाज़ार नहीं है जहाँ तुम सामान खरीद सको। यह मार्ग तपस्या और आत्म-संयम का है। खजाना खोजने से पहले तुम्हें स्वयं को खोजना होगा।”
बाबा ने उसे पहला कार्य दिया।
“जाओ, संगम पर जाओ। आज रात पूर्णिमा है। शीतल और गंगाली के मिलन बिंदु पर बैठो। वहाँ बिना किसी विचार के, केवल नदी की आवाज़ सुनो। जब तक तुम्हारे भीतर का शोर शांत न हो जाए, तब तक मत उठना। यह मार्ग का पहला द्वार है। आदित्य थोड़ा अजीब महसूस कर रहा था। एक कॉर्पोरेट पेशेवर के लिए, बिना कुछ किए, बस बैठकर विचार शून्य होना असंभव था। रात गहरा रही थी। पूर्णिमा का चाँद नदी के पानी पर चाँदी की चादर बिछा रहा था। आदित्य संगम पर बैठा। उसने आँखें बंद कर लीं। शुरू में, उसका मन एक अशांत बाज़ार की तरह था – फ़ोन कॉल्स, अधूरे ईमेल, गाँव की समस्याएँ, जगन्नाथ की लालच भरी बातें। वह घंटों बैठा रहा, पर मन की चंचलता बढ़ती गई। मच्छर काट रहे थे, हवा तेज़ हो रही थी, और उसे नींद आ रही थी।
“यह सब बकवास है,” उसने लगभग उठने का मन बना लिया था।
तभी, उसे दादी के शब्द याद आए: “यहाँ की मिट्टी में कुछ ऐसा है जो शहरों में नहीं है।”
उसने फिर से कोशिश की। उसने अपने ध्यान को केवल साँस पर केंद्रित किया। धीरे-धीरे, बाहरी दुनिया शांत होने लगी। मन के विचार पतंग की डोर की तरह छूटने लगे। अंततः, एक क्षण आया जब सब कुछ शांत हो गया। उसे केवल दो नदियों के बहने की हल्की, निरंतर ध्वनि सुनाई दी—जैसे दो प्राचीन आत्माएँ फुसफुसा रही हों।
ठीक उसी पल, उसके कानों में एक धीमी, मधुर घंटी की आवाज़ गूँजी। यह इतनी साफ़ और वास्तविक थी कि उसने आँखें खोल दीं। वहाँ कोई घंटी नहीं थी। नदी का पानी पहले से कहीं ज़्यादा चमकदार लग रहा था। वह तुरंत बाबा नीलकंठ के पास गया, जो मंदिर के पास एक शिला पर बैठे थे। बाबा! मुझे एक आवाज़ सुनाई दी… एक घंटी की बाबा नीलकंठ ने आँखें नहीं खोलीं। “वह घंटी केवल एक ध्वनि नहीं, बेटा। वह सुराग है। वह घंटी तुझे उस गुफा के प्रवेश द्वार के पास, सिद्धेश्वर महादेव के मंदिर के दाहिनी ओर ले जाएगी। वहाँ एक प्राचीन नंदी की मूर्ति है, जिसकी गर्दन पर एक प्रतीक खुदा हुआ है।”
अगले दिन, आदित्य ने मंदिर के चारों ओर खोज की। जीर्ण-शीर्ण दीवारों, काई और झाड़ियों के बीच, उसे सचमुच एक प्राचीन, काले पत्थर से बनी नंदी की मूर्ति मिली। वर्षों की उपेक्षा के कारण वह लगभग अदृश्य हो गई थी।
उसने नंदी की गर्दन साफ़ की। वहाँ एक चक्र का प्रतीक खुदा हुआ था, जिसके बीच में एक त्रिशूल था।
“यह चक्र.. यह क्या है, बाबा?” आदित्य ने लौटकर पूछा।
“यह शिव-चक्र है,” बाबा ने समझाया। “यह गुफा का ताला है। यह केवल तब खुलेगा जब शिवरात्रि की रात, जब मृगशिरा नक्षत्र में चाँद ठीक उस गुफा के मुहाने पर होगा, और जब तुम शुद्धिकरण के अगले चरण को पूरा कर लोगे।” जगन्नाथ को यह सब पता चल गया था। उसके आदमी आदित्य पर नज़र रख रहे थे।
“तो यह बुड्ढा साधु सच बोल रहा था!” जगन्नाथ ने अपने गुंडों से कहा। “खजाना है! लेकिन यह ज्ञान-वान क्या बकवास है? मुझे बस सोना चाहिए। इस नौसिखिए को गुफा तक जाने दो। जैसे ही यह खजाना निकालेगा, हम इसे लूट लेंगे।”
योगिनी गुफा में प्रवेश
अगले दो हफ्तों तक, आदित्य ने बाबा नीलकंठ के मार्गदर्शन में खुद को तैयार किया। उसने गाँव वालों से मदद नहीं ली, क्योंकि बाबा ने कहा था कि यह उसकी अकेली यात्रा है।
बाबा ने उसे योग और ध्यान के कुछ कठिन अभ्यास सिखाए। उन्होंने उसे गाँव की जड़ी-बूटियों से बने सादे भोजन पर रहने और हर सुबह शीतल नदी के बर्फीले पानी में स्नान करने को कहा। यह सब उसके संकल्प की परीक्षा थी। आदित्य का शरीर मजबूत हुआ, लेकिन उससे भी ज़्यादा मजबूत हुआ उसका मन। शहर का अहंकार और संदेह धीरे-धीरे मिट गया।
शिवरात्रि की रात आ गई। गाँव में उत्सव का माहौल था, लेकिन आदित्य को अपनी गुफा की यात्रा पर निकलना था। बाबा ने उसे अंतिम निर्देश दिए। “यह गुफा केवल पत्थरों का ढेर नहीं है, यह मन का दर्पण है। अंदर, तुम्हें वही दिखाई देगा जिससे तुम्हें सबसे ज़्यादा डर लगता है। तुम्हें अपने डर पर जीत हासिल करनी होगी। यह खजाना तुम्हारा नहीं, शिवगढ़ की आत्मा का है। इसे निःस्वार्थ भाव से स्वीकार करना।” आदित्य ने नंदी की मूर्ति पर खुदा हुआ शिव-चक्र अपने माथे पर महसूस किया और योगिनी गुफा की ओर बढ़ा।
जैसे ही वह गुफा के प्रवेश द्वार पर पहुँचा, उसने देखा कि सेठ जगन्नाथ और उसके तीन गुंडे पहले से ही वहाँ खड़े थे। उनके हाथों में टार्च और फावड़े थे।
“अरे आदित्य बाबू! तुम भी यहाँ सैर करने आए हो?” जगन्नाथ ने व्यंग्य किया। “जाओ, जाकर अपनी दादी के पास सो जाओ। यह खजाना उन लोगों के लिए है जो इसे उपयोग कर सकते हैं, जैसे कि मैं।” जगन्नाथ, यह ज्ञान का खजाना है, इसे पैसे से नहीं खरीदा जा सकता
“चुप! मैं जानता हूँ कि अंदर सोने से भरी तिजोरियाँ हैं! अगर तुम ज़िंदा रहना चाहते हो, तो वापस चले जाओ,” जगन्नाथ ने धमकी दी।
आदित्य ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसने ध्यान से सीखा था कि डर को कैसे जीतना है। उसने बाबा के शब्दों को याद किया और बिना किसी को देखे, सीधे गुफा के अंधेरे मुँह में घुस गया।
जगन्नाथ और उसके गुंडे भी पीछे-पीछे भागे। गुफा अंदर से एक भूलभुलैया थी। पत्थर नुकीले थे, और रास्ता फिसलन भरा था। थोड़ी देर बाद, आदित्य ने देखा कि जगन्नाथ के गुंडे रास्ता भटक गए थे – शायद वे उस आध्यात्मिक ऊर्जा को सहन नहीं कर पा रहे थे जिसका उल्लेख बाबा ने किया था।
आदित्य गुफा में अकेला था। जैसे-जैसे वह अंदर जाता गया, गुफा की दीवारों पर अजीबोगरीब आकृतियाँ बनने लगीं। उसे अचानक अपने जीवन के सबसे बड़े डर दिखाई देने लगे – असफलता का डर, अकेलेपन का डर, और सबसे बड़ा डर – अपने गाँव को बचा न पाने का डर।
एक जगह पर, रास्ता लगभग बंद था। उसे एक संकीर्ण दरार से रेंगकर जाना था। जैसे ही वह रेंगने लगा, उसे लगा कि पत्थर उसे कुचल देंगे। उसका मन चिल्लाया: ‘वापस जाओ!’
तभी, उसे याद आया शिव-चक्र। उसने साँस रोकी और मन में उस घंटी की आवाज़ को दोहराया जो उसने संगम पर सुनी थी। डर का बादल छँट गया। उसने महसूस किया कि दीवारें हिल नहीं रहीं थीं, उसका मन हिल रहा था। यह गुफा का अंतिम भ्रम था। वह दरार से बाहर निकला और सामने एक छोटा, अंडाकार कक्ष देखा। वहाँ, मृगशिरा नक्षत्र का प्रकाश एक छोटे से छेद से सीधे नीचे आ रहा था, और वह प्रकाश एक प्राचीन, ताँबे की पेटी पर पड़ रहा था। पेटी पर वही शिव-चक्र का प्रतीक खुदा था।
निधि और निःस्वार्थता का पाठ
जैसे ही आदित्य ने पेटी के पास घुटने टेके, सेठ जगन्नाथ हाँफते हुए कक्ष में दाखिल हुआ। उसके चेहरे पर पसीना और उसकी आँखों में लालच था।
“आह! मिल गया! मैंने कहा था न, यहाँ खजाना है!” जगन्नाथ ने चीख़कर कहा और पेटी की ओर लपका। आदित्य ने पेटी को कसकर पकड़ लिया। “तुम इसे नहीं छू सकते, जगन्नाथ। तुमने इसे केवल सोना समझा है।”
“सोना ही सब कुछ है! तुम क्या समझते हो, यह ज्ञान-वान बकवास इस गाँव को बचाएगी? मैं इस खजाने से अमीर बनूँगा, और फिर यह गाँव भी मेरा होगा!” जगन्नाथ ने आदित्य को धक्का दिया।
झगड़े में, ताँबे की पेटी ज़मीन पर गिरी और उसका ताला खुल गया।
जगन्नाथ की आँखें चौड़ी हो गईं। उसने सोने के सिक्कों के ढेर की उम्मीद की थी।
लेकिन पेटी के अंदर सोना नहीं था। अंदर केवल दो वस्तुएँ थीं:
चमड़े के पन्नों पर लिखा एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ – सिद्धि-ग्रंथ’। एक छोटा, चिकना, काला पत्थर – नदी के किनारे पाया जाने वाला एक साधारण पत्थर। जगन्नाथ हँस पड़ा। “हा हा हा! यह क्या मज़ाक है? केवल एक पुरानी किताब और पत्थर? यह तुम्हारा खजाना है? बुड्ढा साधु और तुम दोनों पागल हो!” उसने गुस्से में ग्रंथ को फेंकने की कोशिश की, लेकिन आदित्य ने उसे पकड़ लिया। यह पत्थर पारस-मणि है, जगन्नाथ!” आदित्य ने ज़ोर से कहा, जो उसे बाबा के शब्दों से याद आया था। “लेकिन यह लोहे को सोना नहीं बनाता। यह मन को सोना बनाता है। यह पत्थर उस आत्म-बोध का प्रतीक है जो इस ज्ञान से मिलता है।”
जगन्नाथ फिर भी लालच में था। “किताब! इसमें कुछ तो होगा!” उसने ग्रंथ छीनने की कोशिश की।
ठीक उसी समय, गुफा के मुँहाने पर गाँव वाले और बाबा नीलकंठ दिखाई दिए। शिवरात्रि के कारण कई लोग मंदिर आए थे, और उन्होंने जगन्नाथ को गुफा में जाते हुए देख लिया था।
आदित्य ने मौका देखा। उसने पेटी से ग्रंथ निकाला और उसका एक पन्ना ज़ोर से पढ़ना शुरू किया।
ग्रंथ में किसी मंत्र की बजाय, पानी के प्रबंधन और सहकारी खेती का प्राचीन विज्ञान लिखा था।
“‘जब गाँव के हर हाथ की मेहनत एक दिशा में बहेगी, तो शीतल और गंगाली की धाराएँ कभी नहीं सूखेंगी। पानी को बाँधो नहीं, उसे समझो। एक घर का कूड़ा दूसरे का खाद बन सकता है, पर जब लालच बढ़ता है, तो सब कुछ सूख जाता है!’” आदित्य ने पाठ किया।
जगन्नाथ स्तब्ध रह गया। उसे गाँव वालों ने घेर लिया था, जिन्होंने उसकी लालच और धोखे को पहली बार साफ़-साफ़ देखा था।
“यह ग्रंथ… यह तो हमारे पुरखों का ज्ञान है!” एक बूढ़े किसान ने कहा।
जगन्नाथ ने हार मान ली। उसका लालच सबके सामने था। उसने शर्मिंदा होकर फावड़ा फेंक दिया और अंधेरे में भाग गया।
अंतिम रहस्योद्घाटन – आदित्य ने बाबा नीलकंठ के चरणों में माथा टेका।
“बाबा, असली खजाना तो ज्ञान और एकता थी। मैंने शहरों में बहुत धन देखा, पर यह शांति और उद्देश्य का धन सबसे बड़ा है। बाबा नीलकंठ ने स्नेह से आदित्य के सिर पर हाथ रखा
“सही कहा, बेटा। शिवगढ़ की ज़मीन उपजाऊ इसलिए थी क्योंकि यहाँ के लोग इस ज्ञान का पालन करते थे- मिलकर रहना, प्रकृति का सम्मान करना। जब उन्होंने ग्रंथ को छिपा दिया और केवल धन के पीछे भागे, तो भूमि भी रूठ गई। यह खजाना कोई जादुई चीज़ नहीं है; यह जीवन जीने का सही तरीका है।”
उस रात, शिवगढ़ में शिवरात्रि का असली उत्सव शुरू हुआ। गाँव वालों ने पहली बार उस सिद्धि-ग्रंथ की पूजा की, न कि किसी छिपे हुए सोने की।अगले कुछ महीनों में, आदित्य ने शहर की अपनी नौकरी छोड़ दी। उसने गाँव वालों को ग्रंथ में लिखे तरीकों से परिचित कराया। उन्होंने मिलकर पानी के छोटे-छोटे बाँध बनाए, सह-फसली खेती शुरू की और गाँव को आत्मनिर्भरता की दिशा में मोड़ दिया। शिवगढ़ फिर से मुस्कुराने लगा। नदी में पानी का स्तर बढ़ने लगा, और बरगद के पेड़ के नीचे बच्चों की किलकारियाँ फिर से गूँजने लगीं।
आदित्य ने खजाना खोजा था, लेकिन जो उसे मिला वह केवल उसका नहीं, बल्कि पूरे गाँव का था एक आध्यात्मिक ज्ञान जिसने सूखी भूमि को फिर से हरा-भरा कर दिया। और इस यात्रा ने आदित्य को एक नया जीवन, एक नया उद्देश्य और सबसे बड़ी शांति दी, जिसे वह किसी भी महानगर के धन से हासिल नहीं कर सकता था। बाबा नीलकंठ एक दिन चुपचाप गाँव छोड़कर चले गए, जैसे उनका काम पूरा हो गया हो। लेकिन उनका आध्यात्मिक प्रकाश शिवगढ़ में हमेशा के लिए जलता रहा। आदित्य अब गाँव का बेटा था, जिसने शिवगढ़ को केवल खजाने की तलाश में नहीं, बल्कि स्वयं की तलाश में बचाया था।