गर्मी की छुट्टियों में आरव की बनारस यात्रा ने उसे स्नेहा से मिलवाया, जिसकी सादगी ने उसका दिल छू लिया। गंगा किनारे शुरू हुई ये मुलाक़ात, समाज की दीवारों को पार कर सच्चे प्यार की मिसाल बन गई।

गर्मी की छुट्टियों में जब आरव दिल्ली से अपने नाना-नानी के गाँव नैनी आया, तो उसे अंदाज़ा नहीं था कि ये छुट्टियाँ उसकी ज़िंदगी बदल देंगी।
गाँव के पास ही गंगा किनारे एक मंदिर था। रोज़ सुबह की ठंडी हवा और आरती की घंटियों की आवाज़ आरव को वहां खींच ले जाती। एक दिन, वहीँ मंदिर के बाहर उसने एक लड़की को देखा—गुलाबी सूट में, हाथों में पूजा की थाली, और आँखों में गहराई जैसे गंगा की लहरें।
नाम क्या है तुम्हारा? आरव ने हिम्मत कर पूछ ही लिया।
लड़की मुस्कराई, स्नेहा। और तुम्हारा?
बस, उस दिन के बाद हर सुबह आरव और स्नेहा मंदिर में मिलते। बातें शुरू हुईं—गाँव की, फूलों की, चाय की दुकानों की और फिर धीरे-धीरे दिल की भी।
आरव शहर से था, मगर स्नेहा की सादगी और उसके बात करने का तरीका कुछ ऐसा था कि आरव को अपने हाई-फाई दोस्त भी फीके लगने लगे। वो उसकी मुस्कान में अपना सुकून ढूंढने लगा।
एक शाम, गंगा किनारे बैठे-बैठे स्नेहा ने पूछा, तुम वापस जाओगे तो भूल जाओगे ना?
आरव ने स्नेहा का हाथ थामा और कहा, जिस दिन तुम्हें भूल जाऊं, उस दिन ये गंगा भी उलटी बहने लगेगी।
प्यार ने अपनी जड़ें जमा ली थीं।

मगर गाँव की ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती। समाज, रिश्तेदार, जात-पात—सब बीच में आने लगे। स्नेहा के पापा को जब इस रिश्ते की भनक लगी, तो उन्होंने घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी।
आरव ने हार नहीं मानी। उसने अपने माता-पिता को गाँव बुलाया और खुद बात करने पहुंच गया स्नेहा के घर। बहुत समझाने के बाद, जब उसके पिता ने देखा कि ये लड़का सिर्फ प्यार की बातें नहीं कर रहा, बल्कि ज़िम्मेदारी भी निभाना चाहता है—तब उन्होंने हामी भर दी।
एक साल बाद, गंगा के उसी किनारे, मंदिर के आँगन में, स्नेहा और आरव की शादी हुई।
अब आरव हर साल गर्मियों में नैनी आता है—लेकिन अब छुट्टियाँ नहीं मनाने, बल्कि अपनी ज़िंदगी को जीने।