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गाँव की गलियों का पहला एहसास

गाँव का जीवन और मिट्टी की खुशबू

उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों की एक अलग ही दुनिया होती है। वहाँ की गलियों में सुबह-सुबह ही जीवन की चहल-पहल शुरू हो जाती है। मुर्गे की बांग, कुएँ से पानी खींचती औरतें, खेतों की ओर जाते किसान, और आँगन में बैठी दादी-नानी की कहानियाँ – यह सब मिलकर गाँव को जीवंत बना देता है। गाँव की कच्ची गलियाँ धूल भरी ज़रूर होती हैं, लेकिन उनमें अपनापन और सुकून बसता है। हर गली में किसी न किसी की हँसी गूँजती रहती है। बच्चे स्कूल जाने से पहले नंगे पाँव खेलते हैं, और महिलाएँ पनघट से लौटते समय गीत गाती हैं। यही वातावरण गाँव को शहरों से अलग बनाता है। हरिपुर टोला भी ऐसा ही गाँव था – गंगा नदी के किनारे बसा हुआ चारों तरफ़ खेत-खलिहानों से घिरा और लोगों के बीच गहरी आत्मीयता वाला।

इसी गाँव में रहता था अभय कुमार, जो उम्र में लगभग बाईस साल का था। अभय गाँव का सबसे पढ़ा-लिखा लड़का था क्योंकि वह पटना जाकर बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था। गाँव के लोग उसे सम्मान से देखते थे, कहते थे कि यह लड़का बड़ा आदमी बनेगा। अभय का स्वभाव बहुत शांत था। वह गाँव की मिट्टी से गहरा लगाव रखता था, और हर छुट्टी में गाँव आकर खेतों में काम करता, बैलों को हल में जोड़ता, पिता का हाथ बँटाता। उसकी यही सादगी उसे सबका प्रिय बनाती थी। दूसरी तरफ़ गाँव के पश्चिम टोले में रहती थी संध्या यादव। संध्या की उम्र लगभग अठारह साल थी। उसके माथे पर हमेशा पसीने की हल्की बूँदें रहतीं क्योंकि वह घर के कामों में लगी रहती थी, लेकिन उसकी आँखें बहुत गहरी थीं जैसे किसी शांत नदी की लहरें। जब वह पायल पहनकर गली से गुजरती, तो उसकी छनक सुनकर लोग बरबस उसकी ओर देख लेते।

गाँव के लोग अकसर चौपाल पर बैठकर बातें करते थे। कोई खेत-खलिहानों की चर्चा करता, कोई मंडी के दाम बताता, और बुजुर्ग लोग समाज की परंपराओं की बातें करते। इन्हीं सबके बीच गाँव की गलियाँ युवाओं के लिए दोस्ती और मोहब्बत की कहानियों का जन्म देती थीं। अभय और संध्या भी बचपन से एक-दूसरे को जानते थे, लेकिन बचपन की जान-पहचान अब धीरे-धीरे एक अलग रंग लेने लगी थी। जब अभय पटना से छुट्टी लेकर आता और गाँव की गलियों से गुजरता, तो उसकी नज़रें अनायास ही संध्या की तलाश करतीं। वहीं संध्या भी पनघट पर पानी भरने जाती तो उसकी आँखें अभय की ओर झुक जातीं। यह सब बहुत सामान्य था, लेकिन इस सामान्यता में ही एक मीठी-सी गुप्त कहानी जन्म ले रही थी।

पहली मुलाक़ात और दिल का धड़कना

15 अगस्त का दिन था, गाँव के स्कूल में स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम रखा गया था। सुबह से ही बच्चे झंडा फहराने की तैयारी में लगे थे। अभय को कार्यक्रम का संचालन करने की ज़िम्मेदारी मिली थी, क्योंकि वह पढ़ाई में अच्छा था और उसकी आवाज़ भी दमदार थी। संध्या को बच्चों के साथ देशभक्ति गीत गाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। जब मंच पर झंडा फहराया गया और संध्या की आवाज़ गूँजी – वतन के रखवाले ओ वीर जवानों तो पूरा माहौल देशभक्ति से भर गया। भीड़ में तालियाँ गूँज उठीं, लेकिन अभय की नज़रें सिर्फ़ संध्या पर टिक गईं। उसके लिए वह गीत सिर्फ़ एक गीत नहीं था, बल्कि दिल की धड़कन का नया संगीत था।

कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब भीड़ धीरे-धीरे बिखर रही थी, तभी संध्या अपने घर की ओर पानी की बाल्टी लेकर जा रही थी। रास्ता थोड़ा फिसलन भरा था। अचानक उसका पैर फिसला और पूरी बाल्टी का पानी गिर गया। अभय पास ही खड़ा था। वह तुरंत दौड़ा और बोला –
“अरे, सावधान! चोट लग जाती तो
संध्या हल्की-सी हँसी के साथ बोली
“धन्यवाद… पानी तो गिर ही गया।”
अभय ने मुस्कुराकर कहा
“पानी गिरा है, पर आपकी हिम्मत तो नहीं गिरी न? अगली बार संभलकर।”

संध्या ने नज़रें झुका लीं और धीरे से आगे बढ़ गई। यह पहली बार था जब दोनों ने खुले तौर पर बात की थी। उसके बाद से जैसे दोनों की दुनिया बदल गई। जब भी संध्या पायल की छनक के साथ गली से गुजरती, अभय अनायास ही खिड़की से झाँक लेता। संध्या भी किसी न किसी बहाने से उस ओर से निकलती। उनकी आँखें सब कुछ कह देतीं, बिना शब्दों के ही दिल की बातें होतीं।

एक दिन संध्या ने मौका पाकर धीरे से कहा
“अभय जी, आप तो पढ़ाई में बहुत अच्छे हैं, कभी हमें भी गणित समझा दीजिए।”
अभय ने शरारत से जवाब दिया
गणित समझाऊँगा, लेकिन आपकी आँखों में जो सवाल हैं, उन्हें कौन हल करेगा ?
संध्या शरमा गई और वहाँ से भाग खड़ी हुई।

समाज की दीवारें और मोहब्बत का संघर्ष

गाँव छोटा था और वहाँ रहस्य ज़्यादा दिनों तक छुपते नहीं थे। धीरे-धीरे लोगों को अभय और संध्या की नज़दीकियों का आभास होने लगा। चौपाल पर बैठकर बुजुर्ग बातें करने लगे –
अरे, ब्राह्मण का लड़का और यादव की बेटी.. यह तो समाज की इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।
कुछ लोग हँसते, कुछ गुस्से में बातें करते। यह सब सुनकर संध्या के पिता आग-बबूला हो गए। उन्होंने संध्या को डाँटते हुए कहा –
कल से तू स्कूल नहीं जाएगी। घर पर ही रहना। हमारी इज़्ज़त दाँव पर मत लगा।

इधर अभय के घर में भी दबाव बढ़ने लगा। उसके पिता ने साफ कह दिया –
बेटा, यह मोह-माया छोड़ दो। पढ़ाई पर ध्यान दो। जात-बिरादरी की दीवार को पार करना आसान नहीं है।
अभय ने सिर झुका लिया, लेकिन दिल में एक तूफ़ान उमड़ रहा था।

उन दोनों का प्यार अब डर और छुपाव में जीने लगा। जब भी संध्या कुएँ से पानी भरने आती, तो अभय खेत की मेड़ से उसे देख लेता। नजरें मिलती और तुरंत झुक जाती। कभी-कभी चिट्ठी का सहारा लिया जाता – अभय अपनी किताब के पन्नों में चिट्ठी रखकर भेजता और संध्या उसे आँचल में छुपा लेती। इन चिट्ठियों में कोई बड़े-बड़े शब्द नहीं होते थे, बस यही लिखा होता “तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है।”
या
“तुम मुस्कुराती रहो, यही मेरी सबसे बड़ी जीत है।”

एक दिन कार्तिक पूर्णिमा की चाँदनी रात थी। गंगा किनारे मेला लगा था। दीपदान के बहाने दोनों को अकेले मिलने का अवसर मिला। संध्या काँपती आवाज़ में बोली –
“अगर गाँव वाले जान गए तो क्या होगा?”
अभय ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
“अगर प्यार सच्चा है तो दुनिया की कोई ताकत हमें अलग नहीं कर सकती। मैं तुम्हें सिर्फ़ सपनों में नहीं, अपनी ज़िंदगी में भी जगह देना चाहता हूँ।”
संध्या की आँखों में आँसू आ गए, पर मुस्कान भी थी। उसने कहा –
“तो वादा रहा, चाहे कुछ भी हो जाए, हम साथ रहेंगे।”

अधूरा प्यार और बिछड़न

लेकिन प्यार कब तक छुप सकता था? धीरे-धीरे गाँव वालों को सब पता चल गया। चौपाल पर हंगामा मच गया। संध्या के पिता ने गुस्से में कहा –
“अगर वो लड़का हमारे घर के पास आया तो उसकी खैर नहीं।”
इधर अभय को धमकियाँ मिलने लगीं। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि अभय को पटना भेज दिया गया और संध्या को घर में बंद कर दिया गया।

दोनों ने तय किया कि अगर समाज इजाज़त नहीं देगा तो वे भाग जाएँगे। संध्या ने आँचल में कपड़े बाँध लिए और अभय से मिलने गंगा किनारे पहुँची। वहाँ नाव तैयार थी। अभय ने उसका हाथ थामते हुए कहा –
चलो पटना चलते हैं। वहाँ कोई हमें नहीं रोकेगा।
लेकिन तभी पीछे से लाठी-पटक की आवाज आई गाँव वाले पहुँच गए। संध्या के पिता और भाई गुस्से से भरे हुए थे। उन्होंने अभय को बेरहमी से पीटा। संध्या चीखती रही –
“छोड़ दो इन्हें… यह दोषी नहीं हैं… मैं इन्हें चाहती हूँ।
लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी।

अगले दिन संध्या को घर में बंद कर दिया गया और उसकी शादी की तैयारी शुरू हो गई। अभय पटना लौट गया, पर उसकी डायरी में रोज़ यही लिखा जाने लगा –
“संध्या, अगर इस जन्म में न मिले तो अगले जन्म में तुझसे ज़रूर मिलूँगा।”

पाँच साल बीत गए। अभय अब सरकारी नौकरी में लग चुका था। एक दिन सोनपुर मेले में उसने संध्या को देखा। वह अपने छोटे बच्चे के साथ थी। दोनों की नज़रें मिलीं। एक पल को समय ठहर गया। संध्या की आँखों में वही मोहब्बत थी, लेकिन उसके साथ बेबसी भी थी। दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे और आँसुओं की एक लकीर बह गई।

बिना कुछ कहे दोनों ने समझ लिया उनका प्यार अधूरा रह गया, लेकिन दिल में हमेशा जिंदा रहेगा। गाँव की गलियाँ अब भी वही थीं, गंगा अब भी बह रही थी, लेकिन अभय और संध्या की कहानी उन्हीं गलियों की हवा में रह गई। पहला एहसास, पहली मुस्कान और पहला प्यार – सब अधूरा रह गया, पर अमर हो गया।